भीतर-बाहर

लिखते लिखते बहुत कुछ सीखता हुँ,
जो हुँ भीतर, बाहर भी वही
दिखता हुँ

उडने देता हूँ पंछीयों को आजा़द, नील गगन में,
घूसते हैं जब औरों के घौंसलों में लकीर तभी खींचता हुँ

गुलशन के गुलों को बरबाद होते हुए चुपचाप देख नहीं सकता,
पतझड और बहार में पानी सिर्फ मैं अकेला ही सींचता हुँ

आसाँ नहीं होता अपनी मुहब्बत को दूसरों को सौंप देना,
जिम्मेवारी और जज्बात के पहियों में रुह को पीसता हुँ

यूँ ही नहीं बस गया है “कमल” चाहने वालों के दिलों में,
खुद का अना कम करने,
इंसानियत के पत्थर पे घिसता हुँ

© कमलेश रविशंकर रावल